विचारधारा और राष्ट्र

बहुत पहले गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर जी का एक विचार पढा था कि "किताब के आदमी बनावटी बात करते है, दरअसल वे जिस बात पर हँसते है,रोते है,क्रोधित होते है,उत्तेजित होते है वे बाते केवल हास्य, करूण, क्रोध और वीर रस के अलावा कुछ भी नही होती है। वास्तविक आदमी की अपनी एक कल्पना होती है वह रक्त मासँ का बना एक सजीव प्राणी होता है जो प्रत्यक्ष रूप से जीता और जागता है,और यही उसकी सच्ची जीत होती है।" शायद गुरूदेव ने सही कहा है कि किताबे केवल बनावटी बाते करती है बस, क्योंकि अगर किताबों मे जो लिखा है उसे सच मानकर चले तो राजनितिक परिदृश्य में बिल्कुल इसके विपरीत नजारा देखने को मिल रहा है। किताबों में अगर विचारधाराओं की बात की जाये तो हमारे देश में मुख्य रूप से दो विचारधाराएँ अस्तित्व में है पहली है वामपंथी विचारधारा,दुसरी है दक्षिणपंथी विचारधारा। इन दोनों विचारधाराओं के बीच में फँस कर रह गया हैं "राष्ट्रवाद" जिसकी परिभाषा या सर्टिफिकेट इन दोनों विचारधाराओं के लोग अपने अपने हिसाब से देते आये हैं। अब अगर किताबों से मुखातिब हो तो वामपंथी विचारधारा की परिभाषा किताबों मे लिखित है कि " राजनीति में उस पक्ष या विचारधारा को वामपंथी विचारधारा कहते हैं जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबारी लाना चाहते। इस विचारधारा के लोगों को समाज के उस तबके से ज्यादा हमदर्दी रहती है जो किसान होते है,मजदूर होते है,तथा गरीब वर्ग का जो शोषित वर्ग होता है इन लोगों का समर्थन एवं हितैषी बनना इस विचारधारा का मूल उद्देश्य होता हैं।" ऐसा किताबों में वर्णित है वामपंथी विचारधारा के बारे में, लेकिन प्रत्यक्ष समाज में देखा जाये तो ऐसे कितने लोग है जो खुद को वामपंथी तो कहते है लेकिन कभी वामपंथी बने नही।
ये लोग आलिशान कारों में घूमकर कहते है कि हम शोषित वर्गो के साथ खडे है,खादी की खद्दर पहनकर घुमते है और कहते है कि हम किसानों और मजदूरों के साथ खडे है। क्या ये वामपंथी के नाम पर उस गरीब तबके के ऊपर तमाचा नही है जो इन लोगो से ढेरों क़वायद लगाकर बैठा रहता है.
और दूसरी और देखे तो एक विचारधारा है दक्षिणपंथी विचारधारा , इस विचारधारा को मानने वाले लोग आमतौर पर इस पक्ष के समर्थन में होते है की समाज को ऐतिहासिक बनाने के लिए उसकी भाषा , जातीयता , अर्थ व्यवस्था तथा धार्मिक पहचान ही महत्वपूर्ण होती है वो भी सम्पूर्ण एकता के साथ, ऐसा भी किताबों में ही वर्णित है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस विचारधारा का डंका पीटने वाले कितने ऐसे लोग है जो इन बातो को अमल में लाते है , शायद बहुत कम लोग होगे जो देश की भाषा के सन्दर्भ में बात करते है, बहुत कम लोग है जो अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रयासरत है लेकिन ऐसे बहुत लोग दिखाई देते है जो अपने आप को दक्षिणपंथी कहते है और साम्प्रदायिकता का जहर घोलते फिरते है।
अब बात करे राष्ट्रवाद की तो राष्ट्रवाद शब्द केवल इन दो विचारधाराओं के बीच में दुबक कर रह गया गया है। वामपंथी अपने हिसाब से इसे परिभाषित कर रहे है और दक्षिणपंती अपने मनमाफ़िक इसकी आधारशिला गढ़ रहे है.
आज हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात करते है लेकिन जितना खतरा हमें बाहरी आतंकियों से नही है उससे कही ज्यादा खतरा अब इन विचारधाराओं के ठेकेदारों से है।
अगर जल्द ही इस समस्या से निजात नही पायी गयी तो शायद वह दिन दूर नही जब अंग्रेजों के जैसे ही कोई दूसरा मुल्क हमारी आंतरिक कमजोरी का फायदा उठाकर हम पर अपना स्वामित्व स्तापित करने में देरी नही करेगा। ..... अतः हमारे इन ठेकेदारों को चाहिए की धर्म और विचारों की राजनीति करने की बजाय देश की अस्मिता उसकी अखण्डता और एकता के बारे में सोचते हुए हम देश को उन्नति की राह पर ले जाये क्योकि इंसानियत से बड़ी कोई विचारधारा नही होती है।

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