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मरने का ख्याल

 आज शाम से बैठा हूँ खेत में अपने  देख रहा हूँ कैसी वीरानी छाई है  जहां तक नज़र जा रही है वहां तक  सिवाय सुर्ख़ मिट्टी के कुछ भी नहीं है जाने क्यूं जीने पर सवाल आया है पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है क्या ताउम्र ज़िंदगी यूँ ही चलेगी या जिस्म की मिट्टी अब पैरहन बदलेंगी? वो फूल जिन्हें इस बारिश में खिलना था  वो इत्र जिसे इन कपड़ों पर महकना था  लेकिन क्यूं हारे हुए मन का मलाल आया है  पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है। अपनी कुटिया अपना दीन अपना ईमान  दिल फरेबी सा हुआ और जहां बेईमान  चल चले उस तीसरे जहां में जहाँ  रुत बदलती नहीं है सदी बदलती नहीं है  अलविदा कहूँ कि वक्त ए क़याम आया है   पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है। 

दो दोस्त बिछड़ने के बाद...

दो दोस्त बिछड़ने के बाद, अक़्सर महसूस करते है तन्हाई में एक दूसरे की कमी, अचानक आमने सामने बैठने पर नज़रे चुरा कर देखते रहते है एकटक एक दूसरे की ओर जब तक कि ना मिले दोनों की नज़रे नज़रे मिलने पर झुका लेते है अक्सर ही अपनी नज़रो को या देखने लगते है इधर उधर दो दोस्त बिछड़ने के बाद.. अमूमन ही दिखाते रहते है एक दूसरे को बनावटी खुशी जिसका मतलब होता है कि वाकई वो बिछड़ने पर नही है खुश,लेकिन परिस्थितियों के फसादों के आगे बेबस होकर करते रहते है नए लोगों के साथ खुश रहने का दिखावा.. दो दोस्त बिछड़ने के बाद... अकेले में देखते रहते है पुरानी तस्वीरों को और रात के अंतिम पहर तक पढ़कर महसूस करते है पुरानी चैटो को जो व्हाट्सएप या मैसेंजर पर हुई थी कुछ बरसों पहले शुरू.. दो दोस्त बिछड़ने के बाद... कोसते रहते है एक दूसरे को उन बातों के बारे में जो जाने अनजाने में कहने के बाद ले लेती है एक ठोस और बेहद कड़ा फ़ैसला जिसमें शामिल हो चुका होता है बिछड़ना... दो दोस्त बिछड़ने के बाद... नही करते है कभी भी एक दूसरे की बातें और ना ही करना चाहते है कभी भी ख़ुद एकदूसरे से कोई बात, जबकि मन मे आते है ब

दर्द...

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एक नासूर दर्द...जिसका भला कोई इलाज़ संभव नही है वह जानता है, वह जानता है उस दर्द को जो अकारण ही किसी भी वक्त अचानक से आकर उसकी रूह को कपकपा देता है, एक ऐसी सिहरन पैदा कर देता है सीने में की उस सिहरन को सहन कर पाना उसके लिए असंभव सा होता है लेकिन वह आदि हो चूका है उस दर्द को झेलने का... वह दर्द जो बचपन के बीत जाने के बाद उसे मिला है , वह दर्द जिसने उसे वक्त से पहले ही जवान कर दिया था, वह दर्द जो उन गाँव के भोले भाले मज़दूरों की दुर्दशा देखकर उसके सीने में उमड़ा था ... वह दर्द अब अपनी सीमाएं बढ़ाये जा रहा है, पहले उस दर्द की एक टाइमिंग थी और वो एक टाइम पीरियड में ही उठता था... लेकिन अब जब तब उठने लगा है वह दर्द... लोग जानने लगे है उस दर्द के बारे में , लोगों को शक होने लगा है उस अजीब सी सिहरन का, उस बेचैनी का जिसे उसने वर्षों से अपने सीने में दबा रखा था। आनंद मूवी देखी है.. उसका वो आनंद सहगल याद है... बाबु मोशाय...हम सब इस रंग मंच की कठपुतलियां है,जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है....कौन कब कहाँ कैसे..... बस...कुछ ऐसी ही ज़िन्दगी हो चली है उसकी भी...या कहे की वह उस फिल्म को वास्तवि

बस एक तुम्हारी जीत के ख़ातिर हम अपनों से हार चले हैं...

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वही तुम्हारा रोना धोना वही तुम्हारी नादानी, जज्बातों से खेल खेल में वही तुम्हारी शैतानी, रूठे रूठे बातें करना या पल में गुस्सा हो जाना, कभी देर तलक जागते रहना या फिर जल्दी सो जाना, ‌खुद ही खुद को समझा कर हम खुद ही खुद से दूर चले हैं, ‌बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले है।(1) ‌हर एक तुम्हारी गुस्ताखी को,गुस्ताखी लिखना चाहा था, झूठे सच्चे लम्हों में संग दर्पण में दिखना चाहा था, ख़ामोशी जब जब तोड़ी हमने,हम हुए हमेशा बदनाम सही, तुम सच्ची सच्ची बातों वाली,हम झूठे पैगाम सही, महफिल महफ़िल मुस्काकर लो अपनी वो दुनिया छोड़ चले है, बस एक तुम्हारी जीत के खातिर हम अपनों से हार चले है।(2) भावों से भावों में घुसकर भावों को ही तौल दिया अब, होंठो से एक गरम लगाकर शब्दों को भी खोल दिया अब, आने वाली नश्ले मुझको बेशक ठुकरा जाये तो? गुस्ताखी खुद जो की नही हैं उनका दोष लगाये तो? फिर भी हँसते हँसते हम लो होठों में विष डाल चले हैं, बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले हैं।(3) बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले हैं....

बस जबसे तुम खामोश रहने लगे ...

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तुम बात करने में इतना हिचकिचाती क्यों हों? क्योंकि तुम पत्थर की तरह एकदम ढीठ और खामोश रहते हो। वाकई,सच में, हाँ .. पर तुम्हें ही ऐसा क्यों लगता हैं, और लोग भी तो बात करते है मुझसे उन्हें तो ऐसा कुछ नही लगता। क्यूँ, तुम्हे नही लगता की उन और लोगों में और मुझमे बहुत अंतर हैं। हाँ,लगता तो हैँ, वैसे उन और लोगों में और तुममे क्या अंतर हैं? यही की वो सब दुनिया को देखकर तुमसे बात करने आ जाते है, और मैं तुम्हें देखकर। हाहाहाहा...... तुम इतनी बड़ी बड़ी बातें कब से करने लगी। बस जबसे तुम खामोश रहने लगे।

तो, देशभक्ति खुद डूबने डूबाने लगी.

भ्रम की दवायें असर दिखाने लगी, अंधभक्ति , हर घर से आने लगी. अपने अपने राष्ट्रवाद पर हुआ विवाद, तो, देशभक्ति खुद डूबने डूबाने लगी. मैने अपना लहजा, जरा सा गर्म किया, वह तो उठी, और महफिल से जाने लगी. कभी मेरे पास,उसे कह रही थी फरामोश, अब,खुद ही आजमाईश करने कराने लगी.                                

क्या नोटबंदी से गरीबी में मंदी आयेंगी मोदीजी?

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  हाल ही में मोदी सरकार के एक बहुत बड़े फैसले जिसमें 500 और 1000 के नोटों को बंद कर दिया गया, ने पुरे भारत में हड़कम्प मचा के रखा हुआ है. जहाँ सरकार के साथ खड़े लोग इसे एक ऐतिहासिक फैसला बताते हुये इसे कालेधन पर मोदी की सर्जिकल स्ट्राईक बता रहे है वहीं विपक्ष का रवैया इससे बिल्कुल अलग थलग नजर आ रहा है. नोटबंदी के बाद से सोशल साइट्स, टेलिविजन, अखबार आदि सभी सूचना के माध्यम इससे होने वाले नफे नुकसान पर अपने अपने विचारों को रख रहे है. देश का उच्चवर्गीय खेमा जिसे इस फैसले से सबसे ज्यादा ठेस पँहुची है(ऐसा सरकार और उनके समर्थकों का मानना हैं) जिनके पास काले धन का अंबार लगा था  वह भी धीमें स्वर में लेकिन बड़ी तत्परता के साथ सरकार के इस फैसले का स्वागत कर रहा है. लेकिन एक दुसरा निम्नमध्यमवर्गीय खेमा भी हैं जो  अपने दैनिक रोजगार को छोड़ घंटो लाईनों में लगकर भी सरकार के इस फैसले का स्वागत कर रहा है, ये सोचते हुये कि हर बार गरीब ही क्यों सरकार की कठपुतली बनती है हमेशा ? हर बार देश का गरीब तबका ही क्यों दंश झेलता है ? हर बार सरकार के किसी भी फैसले का उपहास का पात्र गरीब ही क्यों