विचारधारा और राष्ट्र
बहुत पहले गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर जी का एक विचार पढा था कि "किताब के आदमी बनावटी बात करते है, दरअसल वे जिस बात पर हँसते है,रोते है,क्रोधित होते है,उत्तेजित होते है वे बाते केवल हास्य, करूण, क्रोध और वीर रस के अलावा कुछ भी नही होती है। वास्तविक आदमी की अपनी एक कल्पना होती है वह रक्त मासँ का बना एक सजीव प्राणी होता है जो प्रत्यक्ष रूप से जीता और जागता है,और यही उसकी सच्ची जीत होती है।" शायद गुरूदेव ने सही कहा है कि किताबे केवल बनावटी बाते करती है बस, क्योंकि अगर किताबों मे जो लिखा है उसे सच मानकर चले तो राजनितिक परिदृश्य में बिल्कुल इसके विपरीत नजारा देखने को मिल रहा है। किताबों में अगर विचारधाराओं की बात की जाये तो हमारे देश में मुख्य रूप से दो विचारधाराएँ अस्तित्व में है पहली है वामपंथी विचारधारा,दुसरी है दक्षिणपंथी विचारधारा। इन दोनों विचारधाराओं के बीच में फँस कर रह गया हैं "राष्ट्रवाद" जिसकी परिभाषा या सर्टिफिकेट इन दोनों विचारधाराओं के लोग अपने अपने हिसाब से देते आये हैं। अब अगर किताबों से मुखातिब हो तो वामपंथी विचारधारा की परिभाषा किताबों मे लिखित है कि &qu