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Showing posts from October, 2015

मै कौन हूँ ?

                                                                            मै कौन हूँ ??? बचपन की आनाकानी में, या हो बेबस जवानी में। लुटती हर वक्त है वो, कश्मीर चाहे कन्याकुमारी में। यूँ तो वह माँ होती हैं, या होती है बहन किसी की, निकलती है जब दुनिया देखने, बन जाती हैं हवस किसी की। पुरुष प्रधान इस देश की, बस इतनी यहीं कहानी हैं, लालन के लिये माँ  राखी के लिये बहन हमसफर के लिये पत्नी लेकिन बेटी के लिये मनाही हैं । लज्जित होना उत्पीडित होना हर दिन की उसकी दिनचर्या है, आवाज उठाओ तो बोलते हैं , तमीज से बात कर,तु मेरी भार्या है। भ्रूण हत्या से शुरूआत होती है अगर बच गयी तो जवानी मे दरिन्दो से रात चार होती है। जवानी की दहलीज पर भी बच गई तो ससुराल मे दहेज के लिये बवाल होता है और अगर वहाँ भी बवाल न हुआ तो बुढ़ापे मे अपने ही बच्चो से फिर सवाल होता है , कि सच मे मै एक महिला हूँ ।

यह पाश की कविता हैं

सपने   हर किसी को नहीं आते बेजान बारूद के कणों में सोई आग के सपने नहीं आते बदी के लिए उठी हुई हथेली को पसीने नहीं आते शेल्फ़ों में पड़े इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते सपनों के लिए लाज़मी है झेलनेवाले दिलों का होना नींद की नज़र होनी लाज़मी है सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते

अंधेरे से उजाले की ओर

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नही जानता हूँ मै कि यह क्या है और क्यूँ हो रहा हैं? अक्सर दुरिया बनानी चाही है उससे लेकिन किसी लोहे की भाँति मै हमेशा उस चुम्बक की ओर आकर्षित हो जाता हूँ ।जानता हूँ यह छलावा है एक शीश महल जैसा जिसमे हर ओर शीशे लगे है,जिधर भी निगाह फेरो वही नजर आता है लेकिन ऐसा क्यूँ हो रहा है?क्या रिश्ता है उससे?कौन है वह जो मेरे अंतर्मन मे लगातार प्रहार किये जा है? कभी-कभी खुद से जानने की कोशिश मे राते बीत जाती है लेकिन क्यूँ नही ढूँढ पा रहा हूँ मै उस वजह को जो बार बार मेरे मानसपटल पर प्रहार किये जा रही हैं। एक बार हो तो सहसा संभल भी जाऊँ लेकिन यह तो दैनिकता मे विद्दमान हो चुकी है कैसे इससे निजात पाऊँ? सोचता हूँ कोई न कोई वजह जरूर होंगी लेकिन वह भी नजर नही आ रही कहीं गुम हो चुकी है शायद वह वजह भी या फिर कहीं धूमिल पडी है लेकिन मै उसे खोजने मे असमर्थ हो रहा हूँ । आदत सी बन चुकी है किसी सिगरेट की तरह ,हरदम होठो से ही लगाये रखना चाहता हूँ ?लेकिन क्यूँ ? क्यूँ मै उसका इतना आदी बना जा रहाँ हूँ ,जानता हूँ कि अगर आग मे हाथ डालूँगा तो हाथ मेरा ही जलना हैं। हरदम रेल की लाइनों की यादे जेहन में स्फ

‎बेखबर‬

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आहट सुनों  सुनो! आहट तो सुनो जरा, कोई दस्तक दे रहा है मेरे!!! मेरे इस सुने घर में कोई खलल डाल रहा है मेरी आंतरिकता मे स्थित मेरे मस्तिष्क की गहराईयों में ! ! ! जरा गौर से सुनो!!! किसी की दबिश सुनाई दे रही हैं तुम्हें ! अपने हृदय के नयन पटलो को खोलो और अपने चक्षु को केन्द्रित करो तुम देखोगी किसी की दस्तक को महसुस करोगें उस आहट को जो जो मुझे तुमसे दुर किये जाने के लिये आयी थी। ‪ बेखबर‬

डिजिटल इंडिया में नया क्या है?

डिजिटल इंडिया में नया क्या है?इसकी शुरुआत तो हमारे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने १९८० के दशक में NIS [नेशनल इंफोर्मेटिक्स  सेंटर ] से शुरू कर दी थी तो उसे ही आगे बढ़ाया जा रहा है बस। डिजिटल इंडिया का मूल उद्देश्य तकनीक के माध्यम से लोगो का जीवन सरल करना है और इसका एक पहलु यह है की इसके अंतर्गत ढाई लाख पंचायतो को ब्राडबैंड से जोड़ना है लेकिन क्या यह पहल जमीनी स्तर से शुरू नही होनी चाहिये?? पहले ग्राम पंचायतो को इसके लिए परिपक्व करना होगा। अगर आकड़ो पर नज़र डाले  तो हम पायेगे की ३७ फीसदी लोग अब भी हमारे देश में अशिक्षित है ,और ९० करोड़ लोग अब भी इंटरनेट से दूर है। हमारे देश में ९० करोड़ लोगो के पास फ़ोन है लेकिन सिर्फ १४ करोड़ लोग ही ऐसे है जिनके पास स्मार्ट फोन है। गाँवो की तो छोड़िये शहरों में लोग अब भी कॉल ड्राप और कनेक्टिविटी जैसी समस्याओं से लगातार जूझ रहे है। इंटरनेट की गति के मामले में हमारे देश का स्थान दुनिया में ११५ वा है। तो क्या पहले यह नही चाहिए की हम हमारी इंटरनेट की गति उसकी कनेक्टविटी को सुधारे उसके बाद आगे की प्रक्रिया पर अपना ध्यान लगाये।   

कोई हमसे भी तो बोलो यारों

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कोई हमसे भी तो बोलो यारों राज़ दिलो के खोलो यारो क्यूँ सहमे सहमे बैठे हो क्यूँ उखड़े उखड़े रहते हो छोडो सब अनजानी बातें पल ज़िन्दगी का जी लो यारो कोई हमसे भी तो.……। नये लगते हो तुम यहाँ पर नये हम भी है यहाँ पर थोड़ा डर बना रहने दो थोड़ी हँसी निकलने दो तोड़ दो कुछ हदों को कुछ हदों को पी लो यारों कोई हमसे भी तो ………। राज़ दिलों के ………  पंकज

प्रेम में आत्महत्या

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प्रेम करने का यह कैसा तरीका है?यह कैसा प्रेम है,यह कैसी नियति है कि ज्यों ज्यों हमारा प्यार प्रगाढ़ होता जाता है, हमारी माँगे बढ़ने लग जाती है।धीरे धीरे प्रेम अधिकार माँगने लग जाता हैं । जब तक दोस्ती रहती है तब तक तो सब कुछ ठीक चलते रहता है लेकिन जब दोस्ती कुछ आगे बढती है तो वह प्रेम का रूप अख्तियार कर लेती है,और उसके बाद अधिकारों का। अपने साथी से प्रेम पाना भी हम अपना अधिकार समझने लगते है, शायद यहीं कारण हैं कि प्रेमी प्रेम मे डूबने की अपेक्षा अधिकारों की लड़ाई मे खो जाता हैं । आज का यूवा वर्ग इसी प्रेम नामक कब्ज से ग्रसित हैं ।जिस समय उसे अपने भविष्य की चिंता करना चाहिए उस समय वह इस कब्ज के शिकंजे मे आ जाता है।और फिर वह ,वह सब कुछ कर बैठता है जो उसे नहीं करना चाहिए । इसी प्रेम के मायाजाल में फसकर वह तनाव से ग्रसित होता है और मादक पदार्थों को अपना हमदर्द बना लेता है। कभी कभी वह इतना चिंतित हो जाता है कि आत्महत्या जैसा घिनौना कदम भी उठा लेता है। आये दिनो हर रोज अखबारों और टेलीविजन पर खबर चलतें रहती हैं कि आज उस प्रेमी युगल ने आत्महत्या कि, कल उस युवा ने प्रेमिक तनाव

जंगल में मोर नाचा तो किसने देखा ?

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विदेश नीति के रंग डिजिटल इंडिया ,मेक इन इंडिया,स्किल इंडिया में हम इतने सराबोर हो चुके है कि हमारे आंतरिकता में  स्थित देश की पहचान जो गाँवो से है , किसानो से है ,खेतो से है ,जंगलो से है ,मज़दूरों से है उसे लगभग भूल चुके है। यह पहल सही है की विदेश नीति का उद्देश्य  गाँवो को डिजिटल करना है ,लेकिन क्या पहले यह जरुरी नही है की हम गाँवो को डिजिटलाइजेशन के लिए परिपक्व करे?आज भी भारत के गाँव में मौजूद किसान अपना खून पसीना एक कर मेहनत से खेती करता है ,लेकिन उस वक़्त उसकी आस  उसकी उम्मीद टूटती सी नज़र आती है जब सुखा पड़ जाता है या वर्षा अधिक हो जाने से उसकी फसल पूरी तरह बर्बाद हो चुकी होती है ,और तब जब वो अपनी बर्बाद फसल के लिए सरकार से मुआवजे की गुहार लगाता है तो  उसे सरकार से सिर्फ  आश्वासन  या ऊठ के मुंह में जीरा के अलावा कुछ भी हांसिल नहीं होता और तब वह न चाहते हुए भी आत्महत्या जैसा घिनौना कदम उठाता है. आज हम गांवो के डिजिटलीकरण की बात कर रहे है लेकिन कर्णधारों से मैं पूछना चाहूंगा की पहले गाँवो में घूम कर देखे तो  आपको पता चलेगा कि आप विदेशों में डिजिटलीकरण की बात तो  कर रहे है लेकिन जिन ग