भोपाल से बुदनी घाट
अचानक
सेन्ट्रल लाइब्रेरी से GST
पर व्याख्यान सुनने के बाद हमारा प्लान
बना कि आज रात भर कहीं घुमा जाये,तो तय हुआ कि बुदनी घाट चलकर नर्मदा नदी को
निहारा जाये.
हम
लोग तकरीबन रात को 9 बजे भोपाल से होशंगाबाद के लिये रवाना हुये, रास्ते में चलते
चलते पिछले कुछ दिनों का मानसिक दबाव हल्का लो चला था, हम लोग आजाद महसूस कर रहे
थे,गाड़ी को सामान्य रफ्तार में चलाते हुये हम लोग कुमार विश्वास के मुक्तक और जान
एलिया,इब्ने इंशा,नूसरत साहब के शेर एक दुसरे को सुनाते जा रहे थे,
जब
जान एलिया का यह शेर पढ़ा कि-
“कितने ऐश उड़ाते होंगे, कितने इतराते
होंगे.
जाने
कैसे लोग वो होंगे जो उसको भाँते होंगे.
कुछ
तो जिक्र करो तुम यारों उसकी कयामत बाहों का,
वो
जो उनमे सिमटते होंगे वो तो मर जाते होंगे...”
तो
एक अजीब सी मुस्कुराहट चेहरे पर ऊभर आयी.
धीरे
धीरे हमारी गाड़ी मण्डीदीप पहुँची जहाँ ठहर कर हमने चाय पी और उस चाय वाले के दर्द
को महसूस किया,बंदा तीन बार से एक ही एक गाना बजाये जा रहा था कि - दोस्ती
इम्तेहान लेती है..,चाय पीते पीते कुछ समय के लिये लगा कि कहीं यह चाय वाला
हमारे ऊपर तो कटाक्ष नही कर रहा है,क्योंकि हमारा भी दोस्ती में इम्तेहान का दौर
चल रहा था.
खैर
यह तो हुई मण्डीदीप तक की बात,लेकिन असली सफर तो अब शुरू हुआ था, मण्डीदीप से आगे
निकलते ही जैसे मेन हाइवे प्रारंभ हुआ मुझे श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी का वह
वाकया याद आया जिसमे वो कहते है कि "ट्रको का आविष्कार तो सड़को के साथ बलात्कार करने
के लिये ही हुआ है",बिल्कुल कोई भी अतिश्योक्ति नही है इस वाक्य में ट्रक हमेशा से
सड़को को छेड़ते आये है और ट्रको के छेड़ने से सड़को पर जो गड्डे रूपी घाव निर्मित
हुये है उनका खामियाजा अक्सर दुपहिया वाहन वालो को ही भुगतना पड़ा है.
हम
लोग चले जा रहे थे,वैसे ही गाड़ी की लाईट कमजोर थी ऊपर से आसमान भी बिजली रूपी
सिसकियाँ लेते हुये रोये जा रहा था.
औबेदुल्लागंज
के बाद से नागिन सी फैली काली रोड पर हमारे अलावा कोई भी नजर नही आ रहा था, न तो
हमारे आगे कोई दुर दुर तक कोई दिखाई दे रहा था और न ही पीछे.
धीरे
धीरे हमारी सारी मस्ती डर में बदलने लगी थी,हमारे होश उड़ते जा रहे थे क्योकिं
बारिश के साथ बिजली की चमक, सुनसान रास्ता और सड़क के दोनो ओर विशाल जंगल. अगर कोई
व्यक्ति अकेले सफर कर ले तो निश्चित तौर पर बरसती बारिश में भी उसके पसीने छूट
जायेंगे.
रास्ते
में चलते हुये हमें हर 2-3 किलोमीटर पर गायों का विशाल झुण्ड दिखाई दे रहा था जो
सड़को पर शायद बजरंग दल के कार्यकर्त्ताओं का इंतजार कर रही थी.
जैसे
जैसे हम बुदनी घाट के समीप आते जा रहे थे हमारी धड़कने बड़ती जा रही थी, रास्ते
में दो बार हमारा मौत से सामना होते होते बचा,पहली बार एक ट्रक के पीछे चलते चलते अचानक हमारी गाड़ी स्लीप हो गई जिससे हम ट्रक के पहिये की चपेट में आते आते बचे ,वही कुछ दूर चलने पर एक वाकया ऐसा घटित हुआ की लगा अब तो बिल्कुल गये !शायद इसलिए कहते है की मौत का कोई समय नही होता पल भर में आ जाती है,हम लोग थोड़ी मस्ती और थोड़ा डर लिए चले जा रहे थे की अचानक से एक विशाल गड्डा सामने आया जिसमे बहुत तेज़ी से पानी बहता जा रहा था जैसे ही गाड़ी उस गड्डे के संपर्क में आयी हमारी साँसे रुक सी गयी हमे लगा हम गये!क्योंकि वँहा पानी का बहाव बहुत तेज़ था लेकिन जैसे तैसे आखिर वहां से निकल ही गये।
अब रास्ता था बुदनी घाट पहुँचने से पहले के चंद किलोमीटर का...... वह सड़क सड़क नही थी वह किसी गाँव में पत्थर और मिट्टी डालकर बनायीं जाने वाली सड़क से भी वाहियात सड़क थी जिस पर गड्डो की इतनी भरमार थी की व्यक्ति पैदल चल ले तो उसके पैरों में छाले पड़ जाये.
खैर जैसे तैसे थोड़े डर और थोड़ी मस्ती के साथ हम लोग तक़रीबन 12 बजे बुदनी घाट पहुँच ही गये,बुदनी घाट के करीब पहुँच कर जब हमने एक व्यक्ति से घाट का रास्ता पूछा तो वह हमें बड़ी हैरानी से देखने लगा कहने लगा कहा से आये हो ,हमने कहा भोपाल से आये है ,घाट देखने के लिए उसे लगा हम लोग कुछ अनर्थ करने आये है क्योकि आजकल अक्सर आत्महत्यायें लोग डूबकर ही करते है तो उसे लगा कही हम भी तो वैसा ही कुछ करने नही जा रहे है और वह विस्मित होकर बोला "भैया भगवान से डरो यार".
हमने कहा भगवान से डरना क्यों उससे तो प्रेम करते है न और प्रेम करने वालो से डरा नही जाता है ,हमारी बात सुनकर पता नही उसने क्या सोचा होगा लेकिन उसने ऊँगली से इशारा करते हुये हमें घाट का रास्ता बता दिया.
घाट पहुँच कर हमने चैन की साँस ली घाट से मद्धम मद्धम रोशनी में धीरे धीरे हो रही बारिश और बिजली की चमक ने नर्मदा के द्रश्य को और अधिक सुहावना बना दिया था ,हौले हौले नदी में लहरें उठ रही थी और पानी अपनी सुगमता के साथ बहते चला जा रहा था हमारा मन कर रहा था की अगर बारिश न हुई होती तो पूरी रात उस घाट की शीतलता को महसूस करते हुए काट देते ,लेकिन मौसम की नज़ाकत को देखते हुये हमने निकलने का फैसला किया और तक़रीबन 3 बजे के आसपास वही काली नागिन सी सड़क ,सुनसान रास्ता,बजरंग दल के इंतज़ार में सड़को पर खड़ी गाय,सड़को के साथ बलात्कार करते हुये ट्रक आदि को देखते देखते हम भोपाल वापस पहुँच गये, और पहुँच कर चैन की साँस ली।
तक़रीबन 6 घंटे के इस सफर के दौरान मेरे जेहन में अज्ञेय उमड़ता रहा ,सोचता रहा जब यहाँ 6 घंटे के सफर में हमारी ऐसी हालात हो गयी है तो "अरे यायावर रहेगा याद?" में बतायी उनकी कैलाश मानसरोवर की यात्रा के दौरान उन पर क्या बीती होगी?
सच में यह एक यादगार सफर में से एक था........
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