मरने का ख्याल

 आज शाम से बैठा हूँ खेत में अपने 

देख रहा हूँ कैसी वीरानी छाई है 

जहां तक नज़र जा रही है वहां तक 

सिवाय सुर्ख़ मिट्टी के कुछ भी नहीं है

जाने क्यूं जीने पर सवाल आया है

पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है


क्या ताउम्र ज़िंदगी यूँ ही चलेगी या

जिस्म की मिट्टी अब पैरहन बदलेंगी?

वो फूल जिन्हें इस बारिश में खिलना था 

वो इत्र जिसे इन कपड़ों पर महकना था 

लेकिन क्यूं हारे हुए मन का मलाल आया है 

पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है।


अपनी कुटिया अपना दीन अपना ईमान 

दिल फरेबी सा हुआ और जहां बेईमान 

चल चले उस तीसरे जहां में जहाँ 

रुत बदलती नहीं है सदी बदलती नहीं है 

अलविदा कहूँ कि वक्त ए क़याम आया है  

पहली मर्तबा मरने का ख्याल आया है। 



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