दर्द...
एक नासूर दर्द...जिसका भला कोई इलाज़ संभव नही है वह जानता है, वह जानता है उस दर्द को जो अकारण ही किसी भी वक्त अचानक से आकर उसकी रूह को कपकपा देता है, एक ऐसी सिहरन पैदा कर देता है सीने में की उस सिहरन को सहन कर पाना उसके लिए असंभव सा होता है लेकिन वह आदि हो चूका है उस दर्द को झेलने का...
वह दर्द जो बचपन के बीत जाने के बाद उसे मिला है , वह दर्द जिसने उसे वक्त से पहले ही जवान कर दिया था, वह दर्द जो उन गाँव के भोले भाले मज़दूरों की दुर्दशा देखकर उसके सीने में उमड़ा था ...
वह दर्द अब अपनी सीमाएं बढ़ाये जा रहा है, पहले उस दर्द की एक टाइमिंग थी और वो एक टाइम पीरियड में ही उठता था...
लेकिन अब जब तब उठने लगा है वह दर्द...
लोग जानने लगे है उस दर्द के बारे में , लोगों को शक होने लगा है उस अजीब सी सिहरन का, उस बेचैनी का जिसे उसने वर्षों से अपने सीने में दबा रखा था।
वह दर्द जो बचपन के बीत जाने के बाद उसे मिला है , वह दर्द जिसने उसे वक्त से पहले ही जवान कर दिया था, वह दर्द जो उन गाँव के भोले भाले मज़दूरों की दुर्दशा देखकर उसके सीने में उमड़ा था ...
वह दर्द अब अपनी सीमाएं बढ़ाये जा रहा है, पहले उस दर्द की एक टाइमिंग थी और वो एक टाइम पीरियड में ही उठता था...
लेकिन अब जब तब उठने लगा है वह दर्द...
लोग जानने लगे है उस दर्द के बारे में , लोगों को शक होने लगा है उस अजीब सी सिहरन का, उस बेचैनी का जिसे उसने वर्षों से अपने सीने में दबा रखा था।
आनंद मूवी देखी है..
उसका वो आनंद सहगल याद है...
बाबु मोशाय...हम सब इस रंग मंच की कठपुतलियां है,जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है....कौन कब कहाँ कैसे.....
उसका वो आनंद सहगल याद है...
बाबु मोशाय...हम सब इस रंग मंच की कठपुतलियां है,जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है....कौन कब कहाँ कैसे.....
बस...कुछ ऐसी ही ज़िन्दगी हो चली है उसकी भी...या कहे की वह उस फिल्म को वास्तविक जीवन में निभा रहा है...
सारी रात उस दर्द के दरमियां ऐसे गुजरती है जैसे कोई लकड़हारा बार बार लकड़ी पर कुल्हाड़ी चला रहा हो तेज़ बहुत तेज़...
और जब अपने बिस्तर पर रात के तीसरे पहर में जब सब सो रहे होते है वो अपना सीना पकड़कर घंटो आंसू बहाया करता है...
और फिर दर्द जब कुछ हद तक कम होता है तब तक सुबह की लालिमा आसमान में दिखाई देने लग जाती है और वह अपने उस दर्द पर विजय पाकर सुकून से देर तक सोते रहता है.....
इस दर्द के आगे सब कुछ फीका है....
किसी शायर की तन्हाई के आलम में लिखी हुई शायरी फीकी है इस दर्द के आगे...किसी आशिक की बेचैनी फीकी है इस दर्द के आगे...दुर्घटना में घायल हुए किसी व्यक्ति का दर्द भी इस दर्द के आगे फीका है...क्योंकि यह दर्द नीम की पत्तियों से भी कड़वा है, किसी हीरे से भी ठोस है यह दर्द जिसका कोई तोड़ है ही नही...
किसी शायर की तन्हाई के आलम में लिखी हुई शायरी फीकी है इस दर्द के आगे...किसी आशिक की बेचैनी फीकी है इस दर्द के आगे...दुर्घटना में घायल हुए किसी व्यक्ति का दर्द भी इस दर्द के आगे फीका है...क्योंकि यह दर्द नीम की पत्तियों से भी कड़वा है, किसी हीरे से भी ठोस है यह दर्द जिसका कोई तोड़ है ही नही...
खैर...अब तो आदत सी हो गयी है...एक मौत को पाने की जिसके इंतज़ार में जाने कितने वर्षो से जिंदगी काटे जा रहा है वो...तन्हाई, बेचैनी, घुटन परेशानी सब सब सब...रोज गुजरता है इन परिस्थितयों से वह बूढ़ा आदमी जो वक्त से पहले जवान हुआ था फिर बूढ़ा हुआ उस नासूर दर्द को झेलते झेलते....
अब इंतज़ार में बैठा रहता है कि मौत आये और आवरण करले उसका और उसके उस नासूर दर्द का जो न जाने कितने समय से उसके सीने में उठता आया है....वो विलक्षण दर्द..
अब इंतज़ार में बैठा रहता है कि मौत आये और आवरण करले उसका और उसके उस नासूर दर्द का जो न जाने कितने समय से उसके सीने में उठता आया है....वो विलक्षण दर्द..
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