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Showing posts from January, 2017

बस एक तुम्हारी जीत के ख़ातिर हम अपनों से हार चले हैं...

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वही तुम्हारा रोना धोना वही तुम्हारी नादानी, जज्बातों से खेल खेल में वही तुम्हारी शैतानी, रूठे रूठे बातें करना या पल में गुस्सा हो जाना, कभी देर तलक जागते रहना या फिर जल्दी सो जाना, ‌खुद ही खुद को समझा कर हम खुद ही खुद से दूर चले हैं, ‌बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले है।(1) ‌हर एक तुम्हारी गुस्ताखी को,गुस्ताखी लिखना चाहा था, झूठे सच्चे लम्हों में संग दर्पण में दिखना चाहा था, ख़ामोशी जब जब तोड़ी हमने,हम हुए हमेशा बदनाम सही, तुम सच्ची सच्ची बातों वाली,हम झूठे पैगाम सही, महफिल महफ़िल मुस्काकर लो अपनी वो दुनिया छोड़ चले है, बस एक तुम्हारी जीत के खातिर हम अपनों से हार चले है।(2) भावों से भावों में घुसकर भावों को ही तौल दिया अब, होंठो से एक गरम लगाकर शब्दों को भी खोल दिया अब, आने वाली नश्ले मुझको बेशक ठुकरा जाये तो? गुस्ताखी खुद जो की नही हैं उनका दोष लगाये तो? फिर भी हँसते हँसते हम लो होठों में विष डाल चले हैं, बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले हैं।(3) बस एक तुम्हारी जीत की खातिर हम अपनों से हार चले हैं....

बस जबसे तुम खामोश रहने लगे ...

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तुम बात करने में इतना हिचकिचाती क्यों हों? क्योंकि तुम पत्थर की तरह एकदम ढीठ और खामोश रहते हो। वाकई,सच में, हाँ .. पर तुम्हें ही ऐसा क्यों लगता हैं, और लोग भी तो बात करते है मुझसे उन्हें तो ऐसा कुछ नही लगता। क्यूँ, तुम्हे नही लगता की उन और लोगों में और मुझमे बहुत अंतर हैं। हाँ,लगता तो हैँ, वैसे उन और लोगों में और तुममे क्या अंतर हैं? यही की वो सब दुनिया को देखकर तुमसे बात करने आ जाते है, और मैं तुम्हें देखकर। हाहाहाहा...... तुम इतनी बड़ी बड़ी बातें कब से करने लगी। बस जबसे तुम खामोश रहने लगे।