यूँ ही फिक्र सी लगी हैं..
यूँ ही फिक्र सी लगी हैं.... जिक्र भी नहीं हैं अब.. किस्सा ए कहानी में कहीं, न तो नज़र आती हैं वो नज्म या तराने में कहीं .... फिर भी फिक्र सी लगी है... जिक्र भी नहीं हैं कहीं ... उन कल्पनाओं का जो कभी हिल्लोरे खाकर दिल में उठा करती थी। गाँव की उस पगडंडी पर चलते चलते। जो मुझे नदियों और खेतों की ओर ले कर जाती थी। खैर!!! वह स्वर्ग ही नही है अब ,तो जिक्र भी नहीं हैं अब.... फिर भी, फिक्र सी लगी हैं.... @☆ # बेख़बर ...